सच्चाई की राह पर

आज से ढाई हजार वर्ष पहले यूनान (ग्रॉस) के एथेंस की गलियों में और चौराहों पर शाम से लेव रात गहराते तक एक आदमी लोगों से तरह तरह के पूछता चलता था। वह लोगों से सरका ईश्वर, धर्म और सत्य के बारे में पूछता था। इस आदमी का नाम था सुकराता सुकरात देखने में कुरूप थे लेकिन धुन के पक्के थे। सुकरात पिता थे और सुकरात बचपन से ही उनकी मदद करते। एथेंस के लोग सौंदर्य प्रिय थे, सुंदर-सुंदर घरों में रहना चाहते थे। इसलिए सुकरात को काम की कमी न थी। सुकरात संगतराशी के साथ-साथ पढ़ते भी थे। 

बड़े होने पर सुकरात ने पढ़ाई छोड़ दी और सेना में भरती हो गए। सेना में रहते हुए सुकरात ने अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं। लेकिन वे आम सैनिकों की भाँति नहीं थे। रात को जब अलाव के चारों ओर सैनिक बैठते थे तो सुकरात उनसे भी तरह-तरह के सवाल पूछते। असल में वे जानना चाहते थे कि सच क्या है और किसी को हानि पहुंचाए बिना कैसे जिंदगी बिताई जा सकती है?

सेना में पाँच वर्षों तक काम करने के बाद वे फिर एथेंस लौट आए और पिता के साथ पुराना धंधा शुरु कर दिया। दिन का अपना काम समाप्त करने के बाद वे बाज़ार में या चौराहे पर पहुँच जाते और अपने साथियों से सवाल-जवाब शुरू कर देते। वे साथियों से कहते कि बिना सोचे- समझे कोई काम न करो और अंधविश्वासी न बनो।

सुकरात के इस सवाल जवाब से जहाँ बहुत से लोग उनके मित्र बने, वहीं बहुत लोग उनके दुश्मन भी बन गए। दुश्मनों में सरकारी अधिकारी, कट्टरपंथी अधिक थे क्योंकि सुकरात सरकार, ईश्वर और धर्म की बात उठाते थे। एक समय आया कि सुकरात की बातें राज्याधिकारियों के लिए असहनीय हो गई और उनका प्रभाव बढ़ते देखकर राज्य के अधिकारियों ने उन्हें हिरासत में ले लिया। उन पर दोष मढ़ा गया कि ये नौजवानों को भड़का रहे हैं. ये देवी-देवताओं को नहीं मानते और लोगों को गलत रास्ता दिखा रहे है।

बाद में उन्हें अदालत में पेश किया गया। उस दिन अदालत खचाखच भरी थी। हर आदमी अदालत की कार्यवाही देखना चाहता था। अदालत ने आरोप लगाया कि सुकरात लोगों को भ्रष्ट बना रहे हैं। वे देवी-देवताओं में विश्वास नहीं करते और नौजवानों को झूठ सिखाते हैं। वे नौजवानों से अनेक सवाल पूछते हैं। कुछ लोगों ने भी सुकरात के खिलाफ गरमागरम बातें कहीं। अंत में सुकरात से आरोपों का जवाब देने को कहा गया।

सुकरात ने निर्भयता से कहा- "आप में से कोई सत्य पसंद नहीं करता। और आप में से कोई मुझे मार नहीं सकता, न्यायाधीश भी नहीं में सत्यपथ पर हूँ। मैं मृत्यु से नहीं डरता। मौत अच्छी है या बुरी, मुझे नही मालूम, लेकिन जानता हूँ कि सत्यपथ से हटना बुरा है।"" सुकरात मैंने आगे कहा- "यदि आप मुझे मुक्त कर देंगे, तब भी मैं सत्य जानने की कोशिश करूंगा और लोगों से कहूंगा कि कुछ भी करने के पहले सवाल पूछे।" 

अदालत ने उनकी बातें अनसुनी कर दी और मौत की सजा सुना दी। उसके बाद तीन सप्ताह तक सुकरात जेल में रहे। एक दिन उनके कुछ मित्र उनसे जेल में मिले। उन्होंने सुकरात से कहा कि उन्होंने प्रहरी को रुपये देकर मिला लिया है। वह रात को फाटक खोल देगा और आप आसानी से बाहर निकल जाएँगे।

सुकरात ने पूछा- "निकलकर क्या होगा?" "आप लोगों से सवाल पूछेंगे।" एक मित्र ने कहा। साथ ही यह भी कहा कि जिन्होंने आपको मौत की सज़ा दी है, वे शैतान हैं। हमें उनसे लड़ना चाहिए।

"आप सबने कहा कि आपने प्रहरी को रुपये दिए हैं, ताकि यह मुझे आजाद कर दे। लेकिन यह अच्छी बात नहीं है।" सुकरात ने कहा- "केवल जीना ही सब कुछ नहीं है। सच्चाई से जीना हो सब कुछ है। आपने बताया कि मुझे मौत की सजा देनेवाले बुरे हैं। लेकिन बुराई से बुराई खत्म नहीं होगी। अतः मैं आप सबसे सहमत नहीं हूँ।" उनका उत्तर सुनकर साथियों की आँखें भर आई। वे रोते हुए विदा हुए।

निश्चित समय पर प्रहरी आया और पीने के लिए प्याले में जहर दिया। उसने एक बूंद भी गिराने को मना कर दिया और कहा- "इसे पीकर आपको तब तक चलते रहना है, जब तक आप गिर नहीं जाते।"

इसके बाद सुकरात ने प्रार्थना की और अत्यन्त शांत भाव से ज़हर पी लिया। जब मित्र रोने लगे तो सुकरात ने उन्हें ऐसा करने से मना किया और चलना शुरू किया। धीरे-धीरे जहर असर करने लगा, उनके पाँव लड़खड़ाने लगे। फिर वे गिर पड़े और आँखे पथरा गई। सुकरात की आँखें बंद हो गईं। किंतु उन्होंने सत्यपथ का रास्ता खोल दिया। यही कारण है कि सुकरात मरकर भी अमर है।

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